Solah Somvar Vrat | Monday Fast
Monday fasts or Solah Somvar Vrat are kept for 16 consecutive Mondays. These fasts are dedicated to Lord Shiva. Lord Shiva is one of the most important deities in Hinduism. In fact, he is an integral part of the holy Hindu trinity. Lord Brahma and Lord Vishnu are the other two deities of the Hindu trinity.
It is believed that Goddess Parvati wanted to marry Lord Shiva and observed Solah Somvar fasts with immense devotion. Ever since then unmarried girls started keeping this fast and asking Lord Shiva to bless them with a life partner like himself.
You might have seen that devotees visit Shiv mandirs on Monday. This is because Monday is the day dedicated to Lord Shiva. It is believed that by observing the Solah Somvar fasts with full devotion and dedication, Lord Shiva blesses the devotees and fulfills their wishes as well.
Who can keep Solah Somvar Vrat?
If you are facing obstacles in your married life or are looking for a perfect life partner, then keeping Monday fast dedicated to Lord Shiva would be highly beneficial for you. A large number of unmarried girls keep Monday fast to seek the blessings of Lord Shiva and get the desired life partner. Many married women also keep this fast as a mark of gratitude and thanks to Lord Shiva.
Whether seeking a life companion or not, if you keep this fast with dedication and pray with commitment, Lord Shiva will surely bless you. Worshipping Lord Shiva during the Shravan month of the Hindu calendar is considered very auspicious. This entire month is dedicated to Lord Shiva.
When to begin Solah Somvar Vrat?
Experts believe that Monday fasting would be beneficial if you start it from the first Monday of Shukla Paksha of Shravan month (June-July). As per your devotion, you can fast for 4 – 5 consecutive Mondays or 16 Mondays.
How to observe Vrat?
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Somavar Vrat begins from sunrise on Monday. Usually, those devotees observing the Vrat visit a Lord Shiva temple in the morning and in the evening. If this is not possible prayers are offered at home.
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The white color dress is worn by those observing the fast. White flowers are also offered to the Shivling.
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A single meal is taken on the day after midday. Those observing partial fast take fruits or Sabudana Khichadi.
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In the evening a story related to Somavar Vrat is listened to or read by those observing the fast.
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Apart from white flowers, people also offer Bilva leaves or Bil Patra while doing the puja.
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The mantra that is chanted is Om Namah Shivaya…The fast ends the next day morning after usual prayers and rituals.
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Solah Somvar vrat Katha
Once Lord Shiva with Goddess Parvati visited the famous city Amravati. On their way, they find a beautiful Lord Shiva temple, made by the king of the city Amravati. To see the beauty of the temple they decide to stay sometime there.
One day, Goddess Parvati notice that Lord Shiva started playing a dice game suddenly the priest of the temple come there. In the excitement of the game, Goddess Parvati felt angry at the priest because he took the side of the Lord and cursed him for being a leper.
Due to the curse of Goddess Parvati, he became a leper and lived a miserable life. To hear his story one fairy (sent by the Lord to him) asked him to perform Solah Somvar Vrat continuously and tell her the rule of the fast. She asked him, on the seventeenth Monday, to prepare the Prashad or holy food with ghee, gur with mixed flour and distribute this prasad among devotees, family members and take some yourself.
Soon he recovered his normal health by the positive energy of the fast. Later Goddess Parvati also performed this fast and soon her son Kartikeya who was displeased with her was presented in front of her. He asked Parvati that which power attracts him and pleases him then Parvati narrates the story. Kartikeya also did the Vrat and met his friend too.
Later Brahmin also performed this Vrat and soon married to the daughter of the King and later became King too. His wife also performed this Vrat and was soon blessed with a beautiful and intellectual son. Later this boy also married to the daughter of a great King by the effect of this Vrat. But his newly married wife had no devotion toward spirituality and she did not accompany him in the rituals of Vrat King on that occasion heard Akaash Vani leave the Queen.
So the king ordered the queen to leave the palace, she left out barefoot and in worn-out clothes. She was thirsty and hungry but due to his misfortune, she was not able to eat and drink something. If she touched water or food all things become rotten she started to curse his fate and like this, her misfortune continued till one cowherd saw all the incident and took her to the priest.
After hearing all the story the priest suggested she take Solah Somvar Vrat to please Lord Shiva. When she completed the rituals of the Solah Somvar Vrat, her husband remembers her and sends his messengers to search for her. king came and asked the priest that he was his husband and he came here to receive her. The king distributes money, food, clothes to the needy people and performs Pooja rituals.
After all these incidents both perform Solah Somvar Vrat Katha and live happily in their kingdom. When they died both enter Shivloka, the home of Lord Shiva. It is said that those devotees who take the fast of Lord Shiva will enter Shivpuri after death.
Solah Somvar vrat katha in Hindi
मृत्यु लोक में विवाह करने की इच्छा करके एक बार श्री भगवान शिवजी माता पार्वती के साथ पधारे वहाँ वे भ्रमण करते-करते विदर्भ देशांतर्गत अमरावती नाम की अतीव रमणीक नगरी में पहुँचे । अमरावती नगरी अमरपुरी के सदृश सब प्रकार के सुखों से परिपूर्ण थी । उसमें वहां के महाराज का बनाया हुआ अति रमणीक शिवजी का मन्दिर बना था । उसमें भगवान शंकर भगवती पार्वती के साथ निवास करने लगे । एक समय माता पार्वती प्राणपति को प्रसन्न देख के मनोविनोद करने की इच्छा से बोली – हे माहाराज, आज तो हम आप दोनों चौसर खेलें । शिवजी ने प्राणप्रिया की बात को मान लिया और चौसर खेलने लगे । उसी समय इस स्थान पर मन्दिर के पुजारी ब्राह्मण मन्दिर मे पूजा करने को आया । माताजी ने ब्राहमण से प्रश्न किया कि पुजारी जी बताओ कि इस बाजी में दोनों में किसकी जीत होगी ।
ब्राहमण बिना विचारे ही शीघ्र बोल उठा कि महादेवजी की जीत होगी । थोड़ी देर में बाजी समाप्त हो गई और पार्वती जी की विजय हुई । अब तो पार्वती जी ब्राह्मण को झूठ बोलने के अपराध के कारण श्राप देने को उघत हुई । तब महादेव जी ने पार्वती जी को बहुत समझाया परन्तु उन्होंने ब्राह्मण को कोढ़ी होने का श्राप दे दिया । कुछ समय बाद पार्वती जी के श्रापवश पुजारी के शरीर में कोढ़ पैदा हो गया । इस प्रकार पुजारी अनेक प्रकार से दुखी रहने लगा । इस तरह के कष्ट भोगते हुए जब बहुत दिन हो गये तो देवलोक की अप्सराएं शिवजी की पूजा करने उसी मन्दिर मे पधारी और पुजारी के कष्ट को देखकर बड़े दया भाव से उससे रोगी होने का कारण पूछने लगी – पुजारी ने निःसंकोच सब बाते उनसे कह दी । वे अप्सरायें बोली – हे पुजारी । अब तुम अधिक दुखी मत होना । भगवान शिवजी तुम्हारे कष्ट को दूर कर देंगे । तुम सब बातों में श्रेष्ठ षोडश सोमवार का व्रत भक्तिभाव से करो । तब पुजारी अप्सराओं से हाथ जोड़कर विनम्र भाव से षोडश सोमवार व्रत की विधि पूछने लगा । अप्सरायें बोली कि जिस दिन सोमवार हो उस दिन भक्ति के साथ व्रत करें । स्वच्छ वस्त्र पहनें आधा सेर गेहूँ का आटा ले । उसके तीन अंगा बनाये और घी, गुड़, दीप, नैवेघ, पुंगीफल, बेलपत्र, जनेऊ का जोड़ा, चन्दन, अक्षत, पुष्पादि के द्घारा प्रदोष काल में भगवान शंकर का विधि से पूजन करे
तत्पश्चात अंगाऔं में से एक शिवजी को अर्पण करें बाकी दो को शिवजी का प्रसाद समझकर उपस्थित जनों में बांट दें । और आप भी प्रसाद पावें । इस विधि से सोलह सोमवार व्रत करें । तत्पश्चात् सत्रहवें सोमवार के दिन पाव सेर पवित्र गेहूं के आटे की बाटी बनायें । तद अनुसार घी और गुड़ मिलाकर चूरमा बनावें । और शिवजी का भोग लगाकर उपस्थित भक्तों में बांटे पीछे आप सकुटुंब प्रसादी लें तो भगवान शिवजी की कृपा से उसके मनोरथ पूर्ण हो जाते है । ऐसा कहकर अप्सरायें स्वर्ग को चली गयी । ब्राहमण ने यथा विधि षोड़श सोमवार व्रत किया तथा भगवान शिवजी की कृपा से रोग मुक्त होकर आनन्द से रहने लगा । कुछ दिन बाद जब फिर शिवजी और पार्वती उस मन्दिर में पधारे, तब ब्राहमण को निरोग देखकर पार्वती ने ब्राहमण से रोग-मुक्त होने का कारण पूछा तो ब्राहमण ने सोलह सोमवार व्रत कथा कह सुनाई । तब तो पार्वती जी अति प्रसन्न होकर ब्राहमण से व्रत की विधि पूछकर व्रत करने को तैयार हुई ।
व्रत करने के बाद उनकी मनोकामना पूर्ण हुई तथा उनके रुठे हुये पुत्र स्वामी कार्तिकेय स्वयं माता के आज्ञाकारी पुत्र हुए परन्तु कार्तिकेय जी को अपने विचार परिवर्तन का रहस्य जानने की इच्छा हुई और माता से बोले – हे माताजी आपने ऐसा कौन सा उपाय किया जिससे मेरा मन आपकी ओर आकर्षित हुआ । तब पार्वती जी ने वही षोड़श सोमवार व्रत कथा उनको सुनाई । स्वामी कार्तिकजी बोले कि इस व्रत को मैं भी करुंगा क्योंकि मेरा प्रियमित्र ब्राहमण दुखी दिल से परदेश चला गया है । हमें उससे मिलने की बहुत इच्छा है । कार्तिकेयजी ने भी इस व्रत को किया और उनका प्रिय मित्र मिल गया । मित्र ने इस आकस्मिक मिलन का भेद कार्तिकेयजी से पूछा तो वे बोले – हे मित्र । हमने तुम्हारे मिलने की इच्छा करके सोलह सोमवार का व्रत किया था ।
अब तो ब्राहमण मित्र को भी अपने विवाह की बड़ी इच्छा हुई । कार्तिकेयजी से व्रत की विधि पूछी और यथाविधि व्रत किया । व्रत के प्रभाव से जब वह किसी कार्यवश विदेश गया तो वहाँ के राजा की लड़की का स्वयंवर था । राजा ने प्रण किया था कि जिस राजकुमार के गले में सब प्रकार ऋंडारित हथिनी माला डालेगी मैं उसी के साथ प्यारी पुत्री का विवाह कर दूंगा । शिवजी की कृपा से ब्राहमण भी स्वयंवर देखने की इच्छा से राजसभा में एक ओर बैठ गया । नियत समय पर हथिनी आई और उसने जयमाला उस ब्राहमण के गले में डाल दी । राजा की प्रतिज्ञा के अनुसार बड़ी धूमधाम से कन्या का विवाह उस ब्राहमण के साथ कर दिया और ब्राहमण को बहुत-सा धन और सम्मान देकर संतुष्ट किया । ब्राहमण सुन्दर राजकन्या पाकर सुख से जीवन व्यतीत करने लगा । एक दिन राजकन्या ने अपने पति से प्रश्न किया ।
हे प्राणनाथ आपने ऐसा कौन-सा भारी पुण्य किया जिसके प्रभाव से हथिनी ने सब राजकुमारों को छोड़कर आपको वरण किया । ब्राहमण बोला – हे प्राणप्रिये । मैंने अपने मित्र कार्तिकेयजी के कथनानुसार सोलह सोमवार का व्रत किया था जिसके प्रभाव से मुझे तुम जैसी स्वरुपवान लक्ष्मी की प्राप्ति हुई । व्रत की महिमा को सुनकर राजकन्या को बड़ा आश्चर्य हुआ और वह भी पुत्र की कामना करके व्रत करने लगी । शिवजी की दया से उसके गर्भ से एक अति सुन्दर सुशील धर्मात्मा विद्घान पुत्र उत्पन्न हुआ । माता-पिता दोनों उस देव पुत्र को पाकर अति प्रसन्न हुए । और उनका लालन-पालन भली प्रकार से करने लगे ।
जब पुत्र समझदार हुआ तो एक दिन अपने माता से प्रश्न किया कि मां तूने कौन-सा तप किया है जो मेरे जैसा पुत्र तेरे गर्भ से उत्पन्न हुआ । माता ने पुत्र का प्रबल मनोरथ जान के अपने किये हुए सोलह सोमवार व्रत को विधि सहित पुत्र के सम्मुख प्रकट किया । पुत्र ने ऐसे सरल व्रत को सब तरह के मनोरथ पूर्ण करने वाला सुना तो वह भी इस व्रत को राज्याधिकार पाने की इच्छा से हर सोमवार को यथाविधि व्रत करने लगा । उसी समय एक देश के वृद्घ राजा के दूतों ने आकर उसको एक राजकन्या के लिये वरण किया । राजा ने अपनी पुत्री का विवाह ऐसे सर्वगुण सम्पन्न ब्राहमण युवक के साथ करके बड़ा सुख प्राप्त किया ।
वृद्घ राजा के दिवंगत हो जाने पर यही ब्राहमण बालक गद्दी पर बिठाया गया, क्योंकि दिवंगत भूप के कोई पुत्र नहीं था । राज्य का अधिकारी होकर भी वह ब्राहमण पुत्र अपने सोलह सोमवार के व्रत को कराता रहा । जब सत्रहवां सोमवार आया तो विप्र पुत्र ने अपनी प्रियतमा से सब पूजन सामग्री लेकर शिवालय में चलने के लिये कहा । परन्तु प्रियतमा ने उसकी आज्ञा की परवाह नहीं की । दास-दासियों द्घारा सब सामग्रियं शिवालय पहुँचवा दी और स्वयं नहीं गई । जब राजा ने शिवजी का पूजन किया, तब एक आकाशवाणी राजा के प्रति हुई । राजा ने सुना कि हे राजा । अपनी इस रानी को महल से निकाल दे नहीं तो तेरा सर्वनाश कर देगी । वाणी को सुनकर राजा के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा और तत्काल ही मंत्रणागृह में आकर अपने सभासदों को बुलाकर पूछने लगा कि हे मंत्रियों । मुझे आज शिवजी की वाणी हुई है कि राजा तू अपनी इस रानी को निकाल दे नहीं तो तेरा सर्वनाश कर देगी । मंत्री आदि सब बड़े विस्मय और दुःख में डूब गये क्योंकि जिस कन्या के साथ राज्य मिला है । राजा उसी को निकालने का जाल रचता है, यह कैसे हो सकेगा । अंत में राजा ने उसे अपने यहां से निकाल दिया ।
रानी दुःखी हृदय भाग्य को कोसती हुई नगर के बाहर चली गई । बिना पदत्राण, फटे वस्त्र पहने, भूख से दुखी धीरे-धीरे चलकर एक नगर में पहुँची । वहाँ एक बुढ़िया सूत कातकर बेचने को जाती थी । रानी की करुण दशा देख बोली चल तू मेरा सूत बिकवा दे । मैं वृद्घ हूँ, भाव नहीं जानती हूँ । ऐसी बात बुढ़िया की सुत रानी ने बुढ़िया के सर से सूत की गठरी उतार अपने सर पर रखी । थोड़ी देर बाद आंधी आई और बुढ़िया का सूत पोटली के सहित उड़ गया । बेचारी बुढ़िया पछताती रह गई और रानी को अपने साथ से दूर रहने को कह दिया । अब रानी एक तेली के घर गई, तो तेली के सब मटके शिवजी के प्रकोप के कारण चटक गये । ऐसी दशा देख तेली ने रानी को अपने घर से निकाल दिया । इस प्रकार रानी अत्यंत दुख पाती हुई सरिता के तट पर गई तो सरिता का समस्त जल सूख गया । तत्पश्चात् रानी एक वन में गई, वहां जाकर सरोवर में सीढ़ी से उतर पानी पीने को गई । उसके हाथ से जल स्पर्श होते ही सरोवर का नीलकमल के सदृश्य जल असंख्य कीड़ोमय गंदा हो गया ।
रानी ने भाग्य पर दोषारोपण करते हुए उस जल को पान करके पेड़ की शीतल छाया में विश्राम करना चाहा । वह रानी जिस पेड़ के नीचे जाती उस पेड़ के पत्ते तत्काल ही गिरते चले गये । वन, सरोवर के जल की ऐसी दशा देखकर गऊ चराते ग्वालों ने अपने गुंसाई जी से जो उस जंगल में स्थित मंदिर में पुजारी थे कही । गुंसाई जी के आदेशानुसार ग्वाले रानी को पकड़कर गुंसाई के पास ले गये । रानी की मुख कांति और शरीर शोभा देख गुंसाई जान गए । यह अवश्य ही कोई विधि की गति की मारी कोई कुलीन अबला है । ऐसा सोच पुजारी जी ने रानी के प्रति कहा कि पुत्री मैं तुमको पुत्री के समान रखूंगा । तुम मेंरे आश्रम में ही रहो । मैं तुम को किसी प्रकार का कष्ट नहीं होने दूंगा। गुंसाई के ऐसे वचन सुन रानी को धीरज हुआ और आश्रम में रहने लगी ।
आश्रम में रानी जो भोजन बनाती उसमें कीड़े पड़ जाते, जल भरकर लाती उसमें कीड़े पड़ जाते । अब तो गुंसाई जी भी दुःखी हुए और रानी से बोले कि हे बेटी । तेरे पर कौन से देवता का कोप है, जिससे तेरी ऐसी दशा है । पुजारी की बात सुन रानी ने शवजी की पूजा करने न जाने की कथा सुनाई तो पुजारी शिवजी महाराज की अनेक प्रकार से स्तुति करते हुए रानी के प्रति बोले कि पुत्री तुम सब मनोरथों के पूर्ण करने वाले सोलह सोमवार व्रत को करो । उसके प्रभाव से अपने कष्ट से मुक्त हो सकोगी । गुंसाई की बात सुनकर रानी ने सोलह सोमवार व्रत को विधिपूर्वक सम्पन्न किया और सत्रहवें सोमवार को पूजन के प्रभाव से राजा के हृदय में विचार उत्पन्न हुआ कि रानी को गए बहुत समय व्यतीत हो गया । न जाने कहां-कहां भटकती होगी, ढूंढना चाहिये ।
यह सोच रानी को तलाश करने चारों दिशाओं में दूत भेजे । वे तलाश करते हुए पुजारी के आश्रम में रानी को पाकर पुजारी से रानी को मांगने लगे, परन्तु पुजारी ने उनसे मना कर दिया तो दूत चुपचाप लौटे और आकर महाराज के सन्मुख रानी का पता बतलाने लगे । रानी का पता पाकर राजा स्वयं पुजारी के आश्रम में गये और पुजारी से प्रार्थना करने लगे कि महाराज । जो देवी आपके आश्रम में रहती है वह मेरी पत्नी ही । शिवजी के कोप से मैंने इसको त्याग दिया था । अब इस पर से शिवजी का प्रकोप शांत हो गया है । इसलिये मैं इसे लिवाने आया हूँ । आप इसेमेरे साथ चलने की आज्ञा दे दीजिये ।
गुंसाई जी ने राजा के वचन को सत्य समझकर रानी को राजा के साथ जाने की आज्ञा दे दी । गुंसाई की आज्ञा पाकर रानी प्रसन्न होकर राजा के महल में आई । नगर में अनेक प्रकार के बाजे बजने लगे । नगर निवासियों ने नगर के दरवाजे पर तोरण बन्दनवारों से विविध-विधि से नगर सजाया । घर-घर में मंगल गान होने लगे । पंड़ितों ने विविध वेद मंत्रों का उच्चारण करके अपनी राजरानी का आवाहन किया । इस प्रकार रानी ने पुनः अपनी राजधानी में प्रवेश किया । महाराज ने अनेक प्रकार से ब्राहमणों को दानादि देकर संतुष्ट किया ।
याचकों को धन-धान्य दिया । नगरी में स्थान-स्थान पर सदाव्रत खुलवाये । जहाँ भूखों को खाने को मिलता था । इस प्रकार से राजा शिवजी की कृपा का पात्र हो राजधानी में रानी के साथ अनेक तरह के सुखों का भोग भोग करते सोमवार व्रत करने लगे । विधिवत् शिव पूजन करते हुए, लोक के अनेकानेक सुखों को भोगने के पश्चात शिवपुरी को पधारे ऐसे ही जो मनुष्य मनसा वाचा कर्मणा द्घारा भक्ति सहित सोमवार का व्रत पूजन इत्यादि विधिवत् करता है वह इस लोक में समस्त सुखोंक को भोगकर अन्त में शिवपुरी को प्राप्त होता है । यह व्रत सब मनोरथों को पूर्ण करने वाला है ।